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 जनपद फतेहपुर के युवा लेखक और पत्रकार भाई अमित राजपूत ने आजादी के फतेहपुरिया महानायक दरियाव सिंह लोधी पर यह महत्वपूर्ण आलेख लिखा है जो 'यथावत' पत्रिका के नवीनतम अंक में प्रकाशित हुआ है। आप सब भी पढ़ें और इस महान योद्धा के बारे में जानें...


दरियाव सिंह लोधी

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भारत की स्वाधीनता की पहली लड़ाई में अवध संग्राम का केन्द्र था तो वहीं इसका गर्भ था ब्रह्मावर्त। ग्राण्ट ट्रण्क रोड पर ब्रह्मावर्त यानी आज का बिठूर यदि शीश-मुकुट है तो अंतर्वेद यानी फ़तेहपुर उसका हृदयस्थल। यह नैसर्गिक है। इसके अलावा इनका राब्ता भी हज़ारों-लाखों सालों से यूँ ही चला आया, जो 1857 की क्रान्ति में भी ज्वलंत दिखता है। पतित पावनी माँ गंगा और कालिन्दी तरुणी यमुना जैसी महत्वपूर्ण नदियों के दो-आब समेत ससुर खदेरी नम्बर-एक और ससुर खदेरी नम्बर-2 इन दो अन्य छोटी नदियों के भी दो-आब के अंक में बसा भूखण्ड दुनिया के लिए किसी बड़े कौतूहल से कम नहीं है। चार-चार नदियों की गोद के व्यूह में सुरक्षित जिस भूमि का पालन और संरक्षण हो वैसी भूमि भला दुनिया में कहाँ? ऐसी भूमि तो भारत को ही ख़ुदा की बख़्शीश है। इन चारों नदियों के ठीक बीचोबीच बसा जनपद फ़तेहपुर का गौरवशाली क़स्बा खागा कुछ इसी तरह से प्राकृतिक रूप से सुरक्षित है।

अठारवीं शती का एकदम उत्तरार्ध आया कि खागा के तत्कालीन ताल्लुकेदार श्रीमन्त मर्दन सिंह की गढ़ी में साल 1795ई. में उस रणबाँकुरे का जन्म हुआ जिसमें पाशविक बल समाया है, जिसने मातृभूमि के हित के लिए लड़ी गई दुनिया के इतिहास की सबसे बड़ी लड़ाई में दुश्मनों पर अपने भुजदण्डों का यूँ प्रहार किया कि उन्होंने क्षणभर में ही यमराज के दर्शन पा लिए, जिसकी तलवार के एक ही प्रहार से अंग्रेज़ों के सिर कटकर उनके पदचिह्न चूमने लगे, जिनका आकर्षक गौरवर्ण, सुगठित काय, लाल डोरों वाली बड़ी-बड़ी आँखें, लम्बा छरहरा क़द, विशाल बाहु, तेजस्वी उन्नत माथा, देदीप्यमान मुख्मण्डल, शीश पर जटा, ललाट पर रोली का रक्त-तिलक, गले में रूद्राक्ष की माला और शत्रुओं का रक्त पीने के लिए लपलपाती जीभ सी खड़्ग लिए मूर्तिमान आभा ने अंतर्वेद की गरिमा को सदा-सदा के लिए मण्डित कर दिया है। ये वीर बालक खागा की भुजसम चारों नदियों के समेकित शक्तिशाली दरियाव की शक्ति लेकर पैदा हुआ, तो इसका नाम धरा गया दरियाव। यही बालक 1857 के स्वातंत्र्य समर में अंतर्वेद का महान योद्धा दरियाव सिंह लोधी सिद्ध हुआ, जिससे घबराकर 1857 की क्रान्ति के लगभग छह बरस पहले ही फ़तेहपुर का तत्कालीन अंग्रेज़ मजिस्ट्रेट और कलेक्टर चार्ल्स वॉल्टर किनलॉक कह गया कि हम अपने सामने एक ऐसा घमण्डी और अशिक्षित व्यक्ति देखते हैं, जो अतुल्य पाशविक बल, महान वैयक्तिक साहस और अनियंत्रित महत्वाकांक्षा रखता है।

खागा के ताल्लुकेदार दरियाव सिंह लोधी के रौबीले व्यक्तित्व और असीम पराक्रम के सामने अंग्रेज़ों की चूँ तक नहीं निकलती थी। हालाँकि उन्हें अपने पिता मर्दन सिंह से मिली ताल्लुकेदारी के बाद से ही अंग्रेज़ों से मिल रही लगातार चुनौतियों का नित्य सामना करना पड़ा, जिसके चलते इनकी ताल्लुका का तमाम अर्थ उसमें व्यय हुआ। वरना मर्दन सिंह के समय खागा की ताल्लुका समृद्धि में विपुल थी। इस बारे में कलेक्टर किनलॉक स्वयं बयान करता है कि ताल्लुका बहादुरपुर खागा लोध जाति के एक पुराने परिवार की पैतृक सम्पत्ति थी। इस परिवार के वर्तमान प्रतिनिधि दरियाव सिंह हैं, जो ‘ठाकुर दरियाव सिंह’ कहे जाते हैं। ये अपने पिता मर्दन सिंह की मृत्यु पर सन् 1824 ई. में इस ताल्लुका के उत्तराधिकारी हुए। उस समय से इस परिवार का भाग्य धीरे-धीरे अवनति की ओर जाता प्रतीत हुआ। इतिहासकार रघुराज सिंह बताते हैं कि रायबरेली की शंकरपुर ताल्लुका के ताल्लुकेदार राणा बेनी माधव बख़्स सिंह दरियाव सिंह लोधी के परम् मित्र थे, जो अपने स्नेहिल सखा की वीरता के क़ायल थे। चूँकि राणा बेनी माधव बैस फिरके के क्षत्रिय थे और दरियाव सिंह सिंगरौर फिरके के लोधी-राजपूत थे। लिहाज़ा राणा बेनी माधव ने जब अवध के नवाब वाज़िद अली शाह से ‘सिरमौर-राणा-बहादुर-दिलेर-जंग’ की पदवी पायी तो अपने परम् मित्र दरियाव सिंह को भी राणा ने बैसवाड़ा और शंकरपुर की ताल्लुका समेत वहाँ के तमाम बैस क्षत्रियों के साथ मिलकर एक स्वर में ‘ठाकुर’ की उपाधि से नवाज़ा। उन्नाव के डौडियाखेड़ा के एक अन्य बैस-क्षत्रिय ताल्लुकेदार और दरियाव सिंह के मित्र राव राजा राम बख़्स सिंह ने भी इसका पुरज़ोर समर्थन किया। तभी से ‘ठाकुर’ की उपाधि पाने के बाद दरियाव सिंह लोधी ‘ठाकुर दरियाव सिंह’ कहे जाते हैं, जैसा कि कलेक्टर किनलॉक ने कहा।

बहरहाल, 1857 की क्रान्ति का बिगुल बजने से पहले ही दरियाव सिंह ने अपने वीर पुत्र सुजान सिंह लोधी को खागा की ताल्लुकेदारी सौंप दी और स्वयं चारों दिशाओं में अंग्रेज़ों की चाल भाँपने और अपने सभी मित्रों मसलन इलाहाबाद में अपने मित्र लियाक़त अली, बिठूर में अपने मित्र नाना साहब पेशवा और रायबरेली में अपने मित्र राणा बेनी माधव को सहायता देने आदि में जुट गये। इलाहाबाद और कानपुर के बीच में फ़तेहपुर अति महत्वपूर्ण सामरिक क्षेत्र था, जिसका नेतृत्व दरियाव सिंह और वहाँ की ताल्लुकेदारी उनके लड़ाके वीरपुत्र सुजान सिंह के कंधों पर थी।

बनारस की क्रान्ति के बाद अवध में उम्मीद जागी। बिठूर में इस उम्मीद को यक़ीन में बदलने की योजना बनी और नाना के नेतृत्व में क्षेत्र के रणनीतिकार जमा हुए। इसमें छापामार युद्धकौशल के महागुणकारी दरियाव सिंह लोधी भी प्रमुख रूप से हिस्सेदार थे। 4 जून को कानपुर की क्रान्ति के बाद दरियाव सिंह राणा बेनी माधव के यहाँ आगे की रणनीति बनाने पहुँचे। लेकिन इधर तीन दिवस बीतते ही 7 जून को इलाहाबाद में क्रान्ति का झंडा गाड़कर लगभग 200 घुड़सवार क्रान्तिकारी कानपुर की ओर बढ़े और खागा आकर ताल्लुकेदार सुजान सिंह से मिले। खागा में सुजान सिंह कानपुर का समाचार पाने के बाद से ही अपने क्रान्तिकारी सैनिकों और किसान-जनता आदि के साथ पहले ही तैयारी में बैठे थे। लिहाज़ा इलाहाबाद से घुड़सवारों के आते ही सुजान सिंह ने अपने पिता दरियाव सिंह की अनुपस्थिति में ही 8 जून, 1857 को खागा के तहसील पर हमला कर दिया। देखते-ही देखते सुजान सिंह ने तहसील समेत खागा के सरकारी ख़ज़ाने और अन्य सम्पत्तियों पर क़ब्ज़ा करके वहाँ स्वतंत्रता का ध्वज फ़हरा दिया।

रायबरेली में खागा की आज़ादी का समाचार पाते ही दरियाव सिंह फ़तेहपुर के लिए निकले और आज़ादी के जश्न में डूबे दीवाने क्रान्तिकारियों ने खागा में आज़ादी की घोषणा करके पश्चिम में ज़िला मुख्यालय की ओर उसे आज़ाद कराने बढ़े। खागा की सफ़ल-क्रान्ति का समाचार जनपदभर में फैल गया। 9 जून को दरियाव सिंह स्वयं और शिवदयाल सिंह रघुवंशी तथा जोधा सिंह अटय्या जैसे प्रमुख क्रान्तिकारियों समेत फ़तेहपुर की आज़ादी का सपना अपनी आँखों में लिये जनपद के कोने-कोने से अनेक क्रान्तिकारी आकर ज़िला-मुख्यालय में जमा हो गए। उस दिन क्रान्तिकारियों को फ़तेहपुर पर क़ब्ज़ा करने में अड़चनें आयीं तो राष्ट्रीय भावना से ओतप्रोत डिप्टी कलेक्टर हिक़मतउल्लाह ख़ाँ स्वयं क्रान्तिकारियों से मिल गए।

रातभर क्रान्तिकारियों ने योजना बनाई और रुके रहे। हिक़मतउल्लाह ख़ाँ के समर्थन से अंग्रेज़ों की पतलूने गीली हो गयीं। कलेक्टर जॉन वॉल्टर शेरर समेत सभी अंग्रेज़ जनपद छोड़कर बांदा की ओर भागकर अपनी जान बचाने निकल गए। शहर में केवल मिजिस्ट्रेट मिस्टर टक्कर रह गया। अगले दिन 10 जून, 1857 को क्रान्तिकारियों ने फ़तेहपुर के सरकारी ख़ज़ानों पर अधिकार कर लिया। मिजिस्ट्रेट मिस्टर टक्कर जान बचाने के लिए कोषागार की छत पर चढ़ गया। लेकिन फ़तेहपुरियों की आँखों में उबलते शोलों को देखकर न सिर्फ़ उसकी पतलून गीली हुयी बल्कि उसने स्वयं पर गोली भी दाग ली और आत्महत्या कर बैठा। इसके बाद क्रान्तिकारियों ने कोषागार की छत पर चढ़कर यूनियन-जैक को उतार फेंका और वहाँ आज़ादी का झण्डा फ़हरा दिया।

महान चातुर्य रणकौशल वाले दरियाव सिंह लोधी के नेतृत्व और वीर रणबाँकुरे सुजान सिंह लोधी की ताल्लुकेदारी में 8 जून को खागा और 10 जून, 1857 को सम्पूर्ण फ़तेहपुर-जनपद आज़ाद हो गया और यह आज़ादी प्रथम स्वाधीनता संग्राम की सबसे लम्बी खागा 34 दिनों तक और अखिल जनपद-फ़तेहपुर पूरे 32 दिनों तक आज़ाद रहा। इतिहास में यह विशिष्ट है।

निश्चित रूप से दरियाव सिंह लोधी जैसा महान क्रान्तिकारी योद्धा पाकर अंतर्वेद और हमारी भारतभूमि धन्य है।

जय हिन्द।

   

--- अमित राजपूत.                                                                                                                                                                                                                                                                                                                  https://amzn.to/3gnwAKp Redmi 9A (Nature Green, 2GB RAM, 32GB Storage) | 2GHz Octa-core Helio G25 Processor | 5000 mAh Battery Country Of Origin - India

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